Friday, April 20, 2012

बुत हूँ कैसे बोल पडूँ?

एक रोज़ हुआ ऐसा सवेरा,
मीरा करती मंदिर का फेरा
प्रभु को लगी कुछ मगन मगन
जी में लागी जाने कौन अगन
होठों पर कृष्णा कृष्णा है,
पर जीभ पे कोई तृष्णा है,
हैं भीगे तो नैन ज़रा
चित्त नहीं है चैन ज़रा
वीणा में वही सुन्दर सुर हैं,
पर भजन क्यूँ आज न मधुर हैं?
दुःख में है मीरा मेरी
फिर चुप क्यूँ है मीरा मेरी
कैसे बांटूं, कैसे जानूं?
ये रीत कहाँ तक अब मानूं,
कि वो खुद ही अपनी कह जाए,
मेरे पैर पड़े, मेरे गुण गाये...
बुरे वक़्त में सभी भक्त हैं
कुछ न भी करें तो भांप जाऊं,
हर लूँ साड़ी विपदा उनकी,
ताकि सदा प्रभु कहलाऊं
मीरा का तो दूसरा न कोई
मैं ही मैं हूँ इसके मन में
तो कैसे मन का हाल बताऊँ? क्या करूँ?
बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

ये है मुझसे और मैं इससे,
ये भेद छिपा है अब किस से?
ये निश्छल निस्वार्थ,
न है देवी कोई न साधारण नारी,
प्रभु मानव दोनों पर भारी...
ले नाम मेरा, बस मुझ पर tवारी,
आज अंधियारी,
बस बेचारी,
दुःख कि मारी,
जाऊं बलिहारी
चाहे आज ये मुझको छोड़ दे
पर चुप्पी अपनी तोड़ दे
बस बहुत हुआ,
दिल में जो भी तेरे uजो खोट है,
जो भी तेरी ये चोट है...
कह दे मुझसे सच सच मीरा
अब भीतर न कुछ रख पीरा,
सुनता हूँ, मैं चुप हूँ
बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

प्रभु कि स्थिति विकट थी
मीरा जितनी निकट थी
दुःख मीरा का जब नहीं bपचा
प्रभु ने माया का खेल रचा
"जब मुझसे ही ये भक्ति है
तो मुझसे ही ये शक्ति हो"
मीरा जो आँखें खोल गयी,
एक झटके में सब बोल गयी...
"दीन दुनिया छोड़ मैंने बस तुम्ही को साधा गए
फिर भी बगल में तुम्हारे, सदा ही राधा है?"
कृष्ण शांत थे, हैरान थे
तो थे ही...अचानक बेजान थे
"बिन ब्याहे तुम्ही को पति माना है,
प्यार तो मैंने तुम्ही से जाना है
तुम? विष के प्याले को अमृत कर गए
पति का फ़र्ज़ निभा गए
एक भक्तिन को बचा लिया
जीवन भर का क़र्ज़ चूका गए?



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एक रोज़ हुआ ऐसा सवेरा,
मीरा करती मंदिर का फेरा
प्रभु को लगी कुछ मगन मगन
जी में लागी जाने कौन अगन
होठों पर कृष्णा कृष्णा है,
पर जीभ पे कोई तृष्णा है,
हैं भीगे तो नैन ज़रा
चित्त नहीं है चैन ज़रा
वीणा में वही सुन्दर सुर हैं,
पर भजन क्यूँ आज मधुर हैं?
दुःख में है मीरा मेरी
फिर चुप क्यूँ है मीरा मेरी
कैसे बांटूं, कैसे जानूं?
ये रीत कहाँ तक अब मानूं,
कि वो खुद ही अपनी कह जाए,
मेरे पैर पड़े, मेरे गुण गाये...
बुरे वक़्त में सभी भक्त हैं
कुछ भी करें तो भांप जाऊं,
हर लूँ साड़ी विपदा उनकी,
ताकि सदा प्रभु कहलाऊं
मीरा का तो दूसरा कोई
मैं ही मैं हूँ इसके मन में
तो कैसे मन का हाल बताऊँ? क्या करूँ?
बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

ये है मुझसे और मैं इससे,
ये भेद छिपा है अब किस से?
ये निश्छल निस्वार्थ,
है देवी कोई साधारण नारी,
प्रभु मानव दोनों पर भारी...
ले नाम मेरा, बस मुझ पर वारी,
आज अंधियारी,
बस बेचारी,
दुःख कि मारी,
जाऊं बलिहारी
चाहे आज ये मुझको छोड़ दे
पर चुप्पी अपनी तोड़ दे
बस बहुत हुआ,
दिल में जो भी तेरे जो खोट है,
जो भी तेरी ये चोट है...
कह दे मुझसे सच सच मीरा
अब भीतर कुछ रख पीरा,
सुनता हूँ, मैं चुप हूँ
बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

प्रभु कि स्थिति विकट थी
मीरा जितनी निकट थी
दुःख मीरा का जब नहीं पचा
प्रभु ने माया का खेल रचा
"जब मुझसे ही ये भक्ति है
तो मुझसे ही ये शक्ति हो"
मीरा जो आँखें खोल गयी,
एक झटके में सब बोल गयी...
"दीन दुनिया छोड़ मैंने बस तुम्ही को साधा है...
फिर भी बगल में तुम्हारे, सदा ही राधा है?"
कृष्ण शांत थे, हैरान थे
बुत तो थे ही...अचानक बेजान थे
"बिन ब्याहे तुम्ही को पति माना है,
प्यार तो मैंने तुम्ही से जाना है
तुम? विष के प्याले को अमृत कर गए...
पति का फ़र्ज़ निभा गए
एक भक्तिन को बचा लिया,

जीवन भर का क़र्ज़ चुका गए?

मैं भगवा में खुश थी,

तुमने खेली बृज की होली

गोपियों के संग रास रचाए,

मैं फिर भी कुछ न बोली...

मुझे जोग की लगन,

तुम्हें भोग की लगन

गाती हूँ फिर भी बस तुम्हरे भजन

न प्रकट हुए, न दरस दिए

नए सपने तुमने हर बरस दिए

मैं मानव-योनी...तुम्हारे लिए जग छोड़ बैठी...

फिर तुमसे क्यूँ न ये दुनिया छूटी?

है प्रीत तुम्हारी क्या झूठी? बोलो...

मीरा के वचन कठोर थे, पर सच्चे थे

पर प्रभु कहाँ इस खेल में कच्चे थे?

वहीँ मुस्कुरा के बैठे रहे, मूरत बन

बोले मन ही मन...

बुत हूँ...कैसे बोल पडूं?

कैसे बतलाऊं?

प्रेम अमर है...क्षणिक नहीं,

इसमें धोखा तनिक नहीं

गोपियों संग बस रास किया...

तेरे दिल में तो वास किया

वृन्दावन की होली में तो खेला है बहुत रंग

पर तेरा भगवा ही लगता है मेरे तन

और यूँ भी इस जग में है ही क्या?

अगर मैं भी इसको छोड़ गया?

सच है एक और... राधा संग प्रीत पुरानी है

ये जन्म-जन्मांतर की कहानी है...

उसे तो कोई बैर नहीं, कि तू कृष्ण-दीवानी है ...

कह दूँ ये सब तो फिर कुछ न कहेगी...

पर बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

मीरा बोली देखा आज भी चुप हो..

वही बुत के बुत हो

कान्हा तुम वाकई अद्भुत हो!

न कभी मेरे आसुओं से रोये...

न कभी मेरे संग हँसे

निर्मोही, निर्विकार बेवजह ही

तुम मेरे चित्त आन बसे

अब जब तक ये संसार हैं,

तुम्ही पर इसका भार है

तुम्ही संभालो...अब मैं चली

संसार तो छूटा ही था

अब तुम बिन भी भली

भक्तों कि कमी कहाँ है?

मेरे बदले सौ आयेंगे...

साधना करेंगे...पूजा करेंगे

जितना चाहें तुम्हें पायेंगे

यूँ भी तुम तो हर किसी के हो

किसी एक के कहाँ हो पाओगे?

थी एक मीरा भी प्रेम दीवानी

कुछ ही रोज में भूल जाओगे

अब कोई आस नहीं कुछ पाने की

पति हो, आज्ञा तो देदो जाने की

प्रभु बोले, मुस्कुराता रहूँगा दुःख में भी, भगवान हूँ

तुम्ही ने तो बनाया है...इस जगह बिठाया है

अब बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

छोड़ वीणा इकतारा,

सुख दुःख सारा

जीवन वारा,

बेसहारा ...

मीरा चल दी

खाली हाथ,

न लिया कुछ साथ

न की कोई बात

आधी रात ...

मीरा चल दी...प्रभु बैठे रहे अविचल

रातें गुजरी, दिन बीते,

प्रभु के पल मीरा बिन बीते

आज पहली बार लगा है

काश भगवान नहीं इंसान होता

अपने दुःख में, किसी और के दुःख का निवारण न सोचता

ठुकराया हुआ था, छोड़ देता, कारण न सोचता

कैसे कह गयी...भक्ति उसी ने की है?

कि बस उस ही ने जोग लिया...

मैंने किस कारण प्रेम का रोग लिया?

अपने हिस्से का दुःख भी मैंने भोग लिया

बोल पाता, अपनी चुप से परेशान न होता

आज पहली बार लगा है, इंसान होता

आज तक तो मैं ही सबसे रूठा हूँ...

मुझे मनाना कहाँ आता है?

सच से भी परे हूँ...

प्यार जताना कहाँ आता है?

ज्योत जला कर छोड़ गयी है

तिल तिल जलता हूँ...

रोती होगी बैठ कहीं,

पल पल गलता हूँ

हाथ मलता हूँ

खुद को छलता हूँ

कैसा लगता हूँ ...प्रभु होकर!

बुत हूँ कैसे बोल पडूं?

फिर एक रोज हुआ ऐसा सवेरा

पट खुले...

आई मीरा लेने मंदिर का फेरा

कृष्ण के चरण चूमे, आंसुओं से धोए

खुद मीरा भी भीगी...

क्या इस बार प्रभु भी रोये?

तुमसे दूर गयी तो जाना...तुम क्या हो कौन हो?

हम हँसे, रोयें, हर रंग दिखाएँ...तुम मौन हो

मेरे लिए तो जोग प्रेम, हर पल हर छिन है

तुम्हारा काम कितना कठिन है

तुम पर भी सब गुज़रती है, चुप रहते हो

हमारे दुःख भी आप ही सहते हो

हम मनुष्य चढावे देकर खुश हैं,

तुमको...तुमको माया से खुश करते हैं

असल में उस ही माया को खोने से डरते हैं

जो हमें प्रिय है, वही तुम्हें अर्पण है

ये कैसा समर्पण है?

जगत एक, भक्त अनेक...

तुम सबकी सुनते हो

शोर से कान तक बंद नहीं करते ...

तंग नहीं आते?

न ही बैराग ले सकते हो...क्या पाओगे?

कहाँ जाओगे?...

कभी तुम पर सोने का मुकुट जड़ देते हैं

कभी तुमको मनचाही मूरत में गढ़ देते हैं

तुम्हें लेकर लड़ाई का बहाना भी मिल जाता है

धर्म की लड़ाई, अधर्म से

तुम्हें जोड़ रखा है अपने हर कर्म से

जैसे अच्छा, बुरा, सही, गलत

सब तुम्ही तो हमसे करवाते हो

हम तो बस धागों से बंधे हैं

तुम जैसे चाहे घुमाते हो

सच नहीं ये....

तुम तो बस हमारे ही कर्मों से, हमें बचाते हो

तुम हो, तो हम हैं

फिर भी तुम्हारे होने पर सवाल उठता है...

सब देखते हो...जानते हो

पर चुप रहते हो...

तुमसे प्रेम न करूँ तो क्या करूँ?

मेरे सिवा तुमरा दूसरा न कोई

कौन समझता है तुमको?

समझते सब वही हैं, जो चाहते हैं ...

सब अलग अलग रूप आकार देते हैं,

अपने अपने तरीके से तो सब प्यार देते हैं

पर तुम्हारा प्यार समझना मुश्किल है ...

बुत हो न...कैसे बोल पड़ोगे?

कृष्ण एकटक मीरा को देखते रहे ...

जैसे वो कह रहे थे, मीरा सुन रही थी

हे मीरा! मुझ में जान डाल गया तेरा विश्वास

आज तेरे भजन, यहीं तेरे पास बैठा सुन रहा हूँ,

तेरी लौ से उज्जवल मन है

एक बुत में आज जीवन है...

तेरी भक्ति का क्या मोल करूँ?

चल आज मैं भी बोल पडूं ...

कह दूँ...कृष्ण बस मीरा से प्रेम करे...

एक बुत में...उसने प्राण भरे!