कमबख्त खिड़कियाँ करवाती हैं मोहब्बतें,
बादलों से, बारिशों से, तो कभी बूंदों से,
खुली रह जाएँ रात को, तो झाँका करती हैं,
रात भर चाँद को ताका करती हैं
खुद पे ओस की बूँदें चढ़ाए रखती हैं,
सच सवेरा धुन्धलाये रखती हैं
चुपचुपाते सावन के संदेसे लाती हैं
वक़्त बेवक्त हवा के झोंके, भीतर ले आती हैं
कमबख्त खिड़कियाँ...