जब मर्ज़ी हो आते जाते हो,
वक़्त बेवक्त छत पर खड़े सीटियाँ बजाते हो,
मैं नज़रें बचा बचा के निकलती हूँ,
तोह भी पीछे से आवाजें लगाते हो,
मोहल्ले भर में बदनाम कर दोगे,
बोलो, ख्वाब खाली करने का क्या लोगे?
तुम ऐसे बाज न आओगे,
जानती थी, फिर भी रहने दिया...
न दस्क्ताखत, न कोई लिखत पढ़त,
न कोई रक़म, फिर भी बेशरम से तुम हो
कि जाने का नाम ही नहीं लेते,
मेरे रहमोकरम पर तुम हो,
क्यूँ ये मान नहीं लेते?
जिद्दी थे, जिद्दी रहोगे,
बोलो ख्वाव खाली करने का क्या लोगे?
कल उस सफ़ेद कमीज़ में,
अचानक हकीकत से लग रहे थे,
उफ़ क्या लग रहे थे,
मुस्कुरा भी रहे थे,
क्यूंकि हमेशा कि तरह ठग रहे थे!
आज तोह बच गए बच्चू,
संभालना, कल तुम भी फंसोगे,
अब भी मान जाओ,
बोलो ख्वाब खाली करने का क्या लोगे?
चले जाओगे तो चैन आएगा,
न छत टपकेगी आँखों से,
न कोई मेरे होठों से मुस्कुराएगा...
न कोई हंसेगा, न ठगेगा, न गायेगा, न सताएगा,
बरसों बाद मेरा ख्वाब... सिर्फ ... मेरा ख्वाब रह जायेगा
बोलो न, ख्वाब खाली करने का क्या लोगे?
Tuesday, April 12, 2011
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