उम्र में जितने साल जुड़ते हैं,
उतने तुम घटते हो...
अजीब सिलसिले हो,
उम्र के जिस पार तुम मिले हो...
न ढूँढा तुम्हें, न पाया कभी
छिपाया कभी, दिखाया कभी
के जैसे कमाई हो सारे जनम की
या जैसे जनम भर के गिले हो,
उम्र के जिस पार तुम मिले हो...
अल्हड होते हम, तो हाथ थामती, भगा ले जाती
बचपन होते हम, तो सबसे लडती, छीन के बैठ जाती
बूढ़े होते तो, सहारे के नाम पे, तुमसे झूल जाती
इस बरस, इश्क इस कदर,
कि हर उम्र पार कर निकले हो,
उम्र के जिस पार तुम मिले हो...
जो साथ चले तो, अकेला कर दिया...
अब क्या करूँ, कहाँ जाऊं?
पीछे मुडूं तो भी, 'वक़्त से पहले' कैसे पहुँच जाऊं?
सालों पहले की तस्वीर में मुस्कुराऊं?
या 'सालों पहले ' की सालगिरह, अकेले मनाऊं?
मन तो है, कि तुम्हारे कल में शामिल होकर,
कल फिर मिल जाऊं
लेकिन कल और कल तो दो सिरे हैं,
तो उधेड़बुन छोड़ दूँ , दोनों में सिल जाऊं
यूँ सिलूं, कि छिल जाऊं...
यूँ छिलूं कि मिल जाऊं
यूँ मिलूं कि ये लगे कि साथ तुम मिले हो,
मेरे साथ तुम छिले हो...
उम्र के जिस पार तुम मिले हो
न इस पार मिले हो , न उस पार मिले हो
उम्र के जिस पार तुम मिले हो
Monday, August 8, 2011
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