मैंने आज एक फ़ैसला किया है
एक कत्ल करने का फ़ैसला...
मेरे चाकू की धार पैनी है
लगते ही खून के फ़व्वारे फूट पड़ेंगे
पर आज पहली बार खून बहता देखने को जी चाहा है
उसे मरना ही होगा
अगर मुझे जीना है तोह उसका खून करना ही होगा
कोई अलविदा नही कोई शिकवा गिला नहीं
इसकी कोई वजेह कोई सिला नहीं
जब वो ही नहीं तोह बाकी कोई सिलसिला ही नहीं
मुझे सज़ा की फिकर नहीं
बर्बादी का डर नहीं
मुझ पर अब इन बातों का कोई असर नहीं
मैंने आज एक फ़ैसला किया है
उसके जीने से किसी को क्या हासिल
उसके मरने से किसी का क्या वास्ता
उसके पैदा होने की ख़बर बहुत थी
उसकी साँसों का सबर बहुत था
मेहरबान होकर जिंदगी दी थी एक दिन
अब मौत का एहसान भी अपने ही सर लिया है
मैंने आज एक फ़ैसला किया है
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3 comments:
बहुत पशोपेश में हूँ की तारीफ़ करू शब्दों की या इसमे छुपे गहरे जज्बातों की पीड़ा को समझूँ? इस आवेश को समेटने की कोशिश करू या जिस अनत:मन ने ये लिखा है उसके पास थोडी देर बैठ जाऊं? क्या करूँ, इस बहती पीड़ा को पी जाऊं या साथ इसके बहता चला जाऊं? क्या करुँ?
तुम मत रुकना, मत सोचना बस लिखते रहना क्यूंकि यही तुम हो और इसी से तुम्हारी शख्सियत है,
वरना इस भीड़ में खो जाने से बचने के लिए कोई दवा हमे नही की है. बचे रहना वरना भीड़ में धकेल दी जाओगी.
बहुत खूब लिखती हैं आप ... वाह
नीलेश
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