महफ़िल ख़त्म क्या हुई...
वो उठे, चल दिए...
पैमाने खाली कर गए,
बस अपनी मैं से भर गए,
नसीब है...
हम अब तलक ऐसे जिए,
के रोज़ उन्हीं की मैं के जाम पिए...
उनका आना, उनका होना... याद रहा,
उनकी आँख का एक कोना... याद रहा,
वो एक एक लम्हा जैसे ख़त हो गया...
बस एक - आधा ग़म ग़लत हो गया,
शुक्र है धुन्दला दिखाई देता है...
कम सुनाई देता है...
ज़माना दुहाई देता है, पर शुक्र है...
याद नहीं, कब महफ़िल ख़त्म हुई...
वो कब उठे, कब चल दिए
लेकिन अजीब है ये बात, की जब उनके होश ठिकाने हैं,फिर वो कैसे दीवाने हैं
जो उन्हीं की मैं के जाम पिए
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