Wednesday, August 20, 2008

सिर्फ़ वो...

क्या करूँ कि उसका सारा दर्द सिमट आए मुझमें…
जब दर्द एक जैसा है तो शरीर क्यूँ दो हों?
है मुझमें इतनी ताक़त की सोख लूँ उसकी तड़प…
रोक दूँ उसके अन्दर बहते आंसू…
या बहार ले आऊं?
क्या करूँ?
वो तो पत्थर का है न…
क्या महसूस करता होगा?
usey छूने से डरती हूँ
शायद पिघल जाऊं,
वो कभी अपनी आग से डरता होगा?
ख़ुद को किस तरह खाली करूँ की usey ख़ुद में भर पाऊं
ख़ुद का इक इक कतरा निकाल दूँ
जो उसका एक हिस्सा भी पा जाऊँ…
क्या करूँ?

1 comment:

Manuj Mehta said...

उसे छूने से डरती हूँ
शायद पिघल जाऊं,
वो कभी अपनी आग से डरता होगा?
ख़ुद को किस तरह खाली करूँ की usey ख़ुद में भर पाऊं
ख़ुद का इक इक कतरा निकाल दूँ
जो उसका एक हिस्सा भी पा जाऊँ…
क्या करूँ?
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इस कशिश को, इस तड़प को सलाम, शब्दों के साथ अच्छा समां बांधा है गरिमा तुमने.
वाकई में कई बार किसी शख्स को समझ पाना या उसमे गुम हो जाने की ख्वाहिश कई सवाल खड़े कर देती है.
और एक अलग सा संसार बना देता है की आप ख़ुद ही सवाल करते हो और ख़ुद ही जवाब भी देते हो. और उस पर मुश्किल यह भी की क्या उसे यह मालूम है?

तुम्हारी ये कविता बहुत ही गहरे तक छू गई मुझे.

लिखते रहना क्यूंकि यही तुम हो और इसी से तुम्हारी शख्सियत है, वरना इस भीड़ में खो जाने के लिए कोई कसार हमने छोडी नही है.