Sunday, November 29, 2009

झुमका

वो एक ही खोया हुआ झुमका
हर बार घर के अलग अलग कोनों में मिल जाया करता है
तो लगता है दो पल की उम्मीद को
कि दो हैं, दोनों ही हैं
एक यहाँ तो एक वहां
अकेला नहीं वो
भ्रम है शायद, जाने सच क्या है
झुमका झुठला रहा है
कहानियाँ बना रहा है
फिर सजने को ललचाता है
किसी को पूरा नज़र आना चाहता है
खोया वो तो न था,
फिर क्यूँ अकेला अधूरा हो वो
इस बार बस ख़ुद से ही पूरा हो वो
एक अकेला झुमका जो घर में
बार बार मिला करता है।

1 comment:

रवि रतलामी said...

और, कभी तो मन भी झुमके की तरह कहीं खो जाता है. है ना?