Tuesday, June 10, 2008

roz...

काश तुम रोज़ भूलो मुझे
और मैं रोज़ याद दिलाऊं,
एक नए सिरे से शुरू हो जिंदगी रोज़
तो एक नई गरिमा से पेचान करवाऊं रोज़

हर मोड़ पर मैं ही मिलूं अचानक
कभी बेबस बेचारी तो कभी शोर मचाती
बस हर जगह मैं ही नज़र आऊं रोज़
काश तुम रोज़ मुझे भूलो
और मैं याद दिलाऊं रोज़


फिर एक बार तुम्हारी aakhein
chuen मेरा astitiv
तुम्हें देखे toh एक pal को dhadakna भूल जाए दिल
पेट में bal padein aakhein jhuk jaayein
तुमको ही अपना aaina banaun रोज़
काश तुम रोज़ मुझे भूलो
और मैं याद दिलाऊं रोज़
तुम्हें lagey की कोई और है
नया है कोई, तुम्हारी talaash का hisaa है कोई
फिर से प्यार कर बैठे हो
तुम्हारी हर talaash में ख़ुद को ही paaun रोज़
काश तुम रोज़ मुझे भूलो
और मैं याद दिलाऊं रोज़

तुम jaano मुझे एक नए सिरे से
एक नई जगह में
और मैं एक नए तुम से मिलूं
तुम्हारे सवालों के रोज़ नए जवाब dhoondhun
तुम्हारे jawabon के लिए नए सवाल banaun रोज़
काश तुम रोज़ मुझे भूलो
और मैं याद दिलाऊं रोज़

तुम्हारी kalpana भी मैं, तुम्हारी कविता भी मैं
हर रचना का आदि अंत मैं
तुम में बसे कवि की aatma में समा जाऊँ
या तुम्हारे khayalon की syaahi में badal jaaun रोज़
तुम्हें कभी paaun तो कभी न paaun
कभी jiyun तो कभी मर jaaun
आज की ही तरह guzar जाऊँ रोज़
काश तुम रोज़ मुझे भूलो
और मैं याद दिलाऊं रोज़

1 comment:

JayaMisra said...

beautiful, lyrical, visual -- you write straight from the heart. im a fan Garima!